जैनाचार्य दिव्यांनदसुरिश्वरजी आदि सन्तों का भव्य मंगल प्रवेश – थांदला लिमड़ी रोड़ पर स्थित भूमि पर किया वासक्षेप बनेगी भव्य जैन दादावाड़ी

चातुर्मास कल्प पूरा कर दिव्यानन्दसूरिश्वर जी का हुआ थांदला में मंगल प्रवेश – बैंडबाजों के साथ सकल संघ ने की अगवानी
थांदला लिमड़ी रोड़ पर स्थित भूमि पर किया वासक्षेप बनेगी भव्य जैन दादावाड़ी
विवेक रूपी चक्षु के दाता हमारें परमात्मा – दिव्यानन्दसुरि
थांदला।
जैन मंदिर मार्गी साधुओं के प्रमुख जैनाचार्य पूज्य श्री जयानन्दसूरिश्वरजी महाराज के कृपा पात्र शिष्य पूज्य गुरुदेव श्री दिव्यांनदसुरिश्वरजी महाराज साहेब आदि ठाणा – 5 का झाबुआ में ऐतिहासिक चातुर्मास कल्प सम्पन्न हुआ उसके बाद वे मेघनगर कि ओर से थांदला नगरी में पधारें जहाँ श्रीसंघ ने उनकी बैंडबाजों के साथ शासनेश वीर प्रभु व महापुरुषों की जयकारों के साथ भव्य आगवानी की जगह जगह गवली कर गुरु भक्ति की गई।
इस अवसर पर श्रीसंघ द्वारा नगर के थांदला लिमड़ी मार्ग पर स्थित श्री मुनिसुव्रतस्वामी राजेन्द्रसुरि जैन दादावाड़ी की परिकल्पना वाले स्थान पर गुरुदेव को ले जाया गया जहाँ गुरुदेव ने वासक्षेप कर संघ के सपनों को साकार होने का मंगल आशीर्वाद दिया।

गुरुदेव ने मुख्य मार्गों से होकर केसरियानाथ जिनालय में प्रवेश कर प्रभु की स्तुति आदि से वंदना की ततपश्चात आजाद चौक स्थित पौषध भवन पर धर्म सभा के रूप में परिवर्तित हो गई जहाँ उन्होंनें प्रेरक प्रवचन के माध्यम से आचार्य श्री ने कहा अनादि काल से जीव सुख की खोज में भटक रहा है ऐसे में तीर्थंकर परमात्मा ने भी भव्य जीवों को सुखी होने का मार्ग बताया। लेकिन जीव का अनादि अभ्यास उसे डुप्लिकेट सुख में उलझाए हुए है। प्रभु ने अहिंसा-संयम-तप को सुख का मार्ग बताया पर हमने महज सुखाभास रूपी भौतिक सम्पन्नता के लिए उसमें भी मिलावट कर दी। गुरुदेव ने कहा कि सभी की चाहना मोक्ष सुख की है पर मार्ग पर मन नही लगता वह उस पर चलने को तैयार नही जबकि उन्मार्ग पर चलने में व्यर्थ समय गंवातें आंनद मनाता है तो उसे मोक्ष मंजिल कैसे मिलेगी। चार शरण मोक्ष के निकट लाती है पर हमें वहाँ भी उन्मार्ग की याद आती है पर कभी चिंतन किया कि कभी उंमार्ग पर संमार्ग याद आया। जीव बड़ा समझदार है आज वह बाजार से सोना तो ठीक पर यदि कोई मटका भी लाता है तो पहले बजाकर देखता है ऐसे में वह सन्मार्ग व उन्मार्ग में श्रेष्ठ कौन सा मार्ग है यह परीक्षण नही करता यह बड़े आश्चर्य की बात है। गुरुदेव ने कहा कि आज कोई केवलज्ञानी नही है जो किसी के मन की बात बता दे ऐसे में व्यक्ति स्वयं को आत्म निरीक्षण करना होगा व उसे समझना होगा कि किस मार्ग पर चलने से मेरा यह भव सफल होगा। गुरुदेव ने कहा कि आज का मानव पशु-पक्षी से भी गया गुजरा है वे इतने कषाय परिग्रह नही करते जितना मनुष्य करने लगा है। अरे भगवान ने जिसे पाप कहा है उसे करने में वह अपनी शान समझता है। बालों को डाई से काला करवाता है क्योंकि उसे मयाचार रूपी काला काम पसंद है जबकि सफेदी उसे खलती है क्या वह यह आठवां पाप इतना जरूरी मानता है कि उसे भी नही छोड़ सकता। गुरुदेव ने कहा कि जैसे सभी डॉक्टर किसी मेडिसिन के एक जैसे लाभ बताते है वैसे ही सभी परमात्मा ने एक जैसा ही उपदेश देते हुए भव्य जीवों को विवेक रूपी चक्षु देकर निर्मल सम्यग् दर्शन की प्रेरणा दी व मोक्ष के लिये दान-शील-तप-भाव रूपी चार प्रकार का धर्म बताया है लेकिन जीव चार संज्ञाओं में इतना उलझा हुआ है कि वह ओरिजनल को पहचान नही पा रहा है। भगवान ने आहार संज्ञा को तप से, परिग्रही संज्ञा को दान से, मैथुन संज्ञा को शील (निर्मल ब्रम्हश्चर्य) से व भय को भाव से जीतने का कल्याणकारी रास्ता बताया है। आज थांदला वालों को निर्णय करना ही पड़ेगा कि हमें कौन सा मार्ग का चुनाव करना है ..? इस थांदला में जन्म लेने वालें उमेशमुनिजी से किस प्रकार भिन्न है। उन महापुरुष ने मोक्ष पुरुषार्थ रूप सात भाग लिख दिए जिसे चौपड़ी में ही रखा या खोपड़ी में भी उतारा यह भी विचार करना। अरे भगवान के शासन में पहले गणधर गौतमस्वामी भगवान से लड़ने आये थे, चण्डकौशिक सर्प डंक मारने तो रोहणीय चोर को भी भगवान का एक शब्द भी नही सुनने की प्रतिज्ञा थी पर वे सभी भगवान के सम्पर्क में आये व तिर गए लेकिन हमको तो देवों को भी जो दुर्लभ है वह श्रेष्ठ योग्यता मिली पर इसका उपयोग गौतमस्वामी की लब्धि मांगनें में कर रहे जबकि हमें उन्हें यह लब्धि उन्हें किन गुणों से कैसे मिली यह जानकर उनके जैसा विनयशील बनना चाहिए। यह एक विनय गुण अन्य गुणों को गृहण करने वाला बनता है। गुरुदेव ने कहा विनय हमारें हाथ में है उसे व्यवहार में लाने का पुरुषार्थ करें व भगवान के वचनों पर दृढ़ आस्था रखें जिससे समकित के अन्य लक्षण स्वयं ही प्रकट हो जाएंगे फिर उसका शाश्वत ओरिजनल मोक्ष सुख प्राप्त होकर ही रहेगा। धर्म सभा में श्रीराम विजयजी महाराज साहेब ने भगवान की अंतिम देशना उत्तराध्ययय के प्रथम अध्ययन से विनय गुण ग्रहण करने की प्रेरणा देते हुए कहा कि मोक्ष के प्रवेश द्वार सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप का मुख्य प्रवेश द्वार विनय ही है। उन्होंनें कहा कि प्रभु ने चार अंग दुर्लभ बताए है जो मोक्ष का शाश्वत सुख दिलाने में सहायक है जो जन्म-मरण, रोग व बुढ़ापे रूप दुःख को दूर करने के भी उपाय है वरना तो ये चार दुःख हर जीव को हर भव में परेशान करने वालें है। उन्होंनें सामायिक स्वाध्याय को ज्ञान का आलम्बन बताते हुए कहा कि इसी से एक मात्र मनुष्य में केवलज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश होता है जो अज्ञानतम को हटाकर लोकाकोक को प्रकाशित करता है। उन्होंनें कहा कि मिलना व फलना दोनों अलग बात है मनुष्य भव मिल गया संत समागम मिल गया उसे सिद्धि प्राप्त करने में लगाए फिर उसे प्रसिद्धि तो अनायास ही मिल जाएगी। यह भब मिला है इसे जिनाज्ञा से फलाने का पुरुषार्थ मनुष्य स्वयं को करना है, संत दर्शन से शांत बने योगी से मिलकर उपयोगी बने तभी उसका कल्याण हो सकता है। धर्मसभा के पश्चात गुरुदेव ने सभी को मांगलिक श्रवण करवाई वही मयूर वर्धमान तलेरा परिवार ने प्रभावना का लाभ लिया। गुरुदेव की भव्य अगवानी में संघ अध्यक्ष कमलेश दायजी, उपाध्यक्ष कमल पीचा, सचिव मयूर तलेरा , कोषाध्यक्ष प्रफुल्ल पोरवाल, वरिष्ठ सुश्रावक रमणलाल मुथा, पूर्वाध्यक्ष उमेश पीचा, यतीश छिपानी, चंचल भंडारी, विमल पीचा, संजय फुलफगर, यतीन्द्र दायजी, कमल पीचा, तेजेश कटारिया, स्थानकवासी संघ अध्यक्ष भरत भंसाली, सचिव प्रदीप गादिया, प्रवक्ता पवन नाहर, दिलीप शाहजी, प्रदीप छाजेड़, राजेन्द्र रुनवाल सहित बड़ी संख्या में श्रावक श्राविका व गुरुभक्त उपस्थित थे।

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